संजय टाइगर रिजर्व क्षेत्र में दिखा गिद्धों का झुंड, विलुप्त होती जा रहीं प्रजाति के पक्षियों के आवक से खुश दिखे लोग, माकूल स्थान की तलाश में हैं यह पक्षी,

 

 

 

 

 

 

 

बीरबल समाचार  सीधी। संजय टाईगर रिजर्व क्षेत्र (कोर जोन) अन्तर्गत चमराडोल में गिद्धों का एक बड़ा समूह 1 सितम्बर को देखा गया जिससे विलुप्त होती इस प्रजाति के पक्षियों पर चर्चा होना लाजिमी है कारण कि स्थानीय लोगों के भीतर इन्हें देखने का अलग ही उत्साह देखा गया है। बताते चलें कि ये कत्थई और काले रंग के भारी कद के पक्षी हैं, जिनकी दृष्टि बहुत तेज होती है। शिकारी पक्षियों की तरह इनकी चोंच भी टेढ़ी और मजबूत होती है, लेकिन इनके पंजे और नाखून उनके जैसे तेज और मजबूत नहीं होते। ये झुंडों में रहने वाले मुर्दाखोर पक्षी हैं जिनसे कोई भी गंदी और घिनौनी चीज खाने से नहीं बचती। ये हमेशा झुण्ड में पाये जाते हैं। गिद्धों की आयु 40 से 45 साल तक होती है, गिद्ध दीर्घायु होते हैं लेकिन प्रजनन में उन्हें ज़्यादा समय लगता है। यह चार से छह साल की उम्र में प्रजनन योग्य हो जाते हैं। इनकी नज़र बहुत तेज़ होती है, ऐसा माना जाता है कि खुले मैदान में वे चार मील दूर से तीन फ़ीट का शव देख सकते हैं। गिद्धों की दृष्टि इंसानों से आठ गुना तेज होती है। गिद्धों को मुर्दाखोर (स्कैवेंजर) कहा जाता है। ये शरीर को ठंडा करने के लिए वे खुद पर पेशाब करते हैं। ये मृत पशुओं व सड़ा हुआ मांस खाने के लिए जाने जाते हैं। वैसे नाम से ही ज़ाहिर होता है पाम नट वल्चर (गिद्ध) कई तरह के अखरोट, अंजीर, मछली व कीड़े मकोड़े भी खाते हैं इसीलिए इन्हें प्राकृतिक सफाईकर्मी भी कहा जाता है।

रिजर्व क्षेत्र में ढूंढ रहे आशियाना,

संजय टाइगर रिजर्व क्षेत्र में समूह के साथ गिद्धों का एकाएक आना यह संकेत करता है कि इस क्षेत्र में वह अपना आशियाना ढूंढ रहे हैं अगर इस संकेत को संजय टाइगर रिजर्व के आला अधिकारी गंभीरता से लेंगे और उनको अनुकूल माहौल बहाल करेंगे तो इस क्षेत्र में आने वाले पर्यटकों के लिए गिद्धों का बसाहट अनुकूल ही माना जाएगा।

संख्या में हो रही गिरावट के हैं कई कारण,

गिद्धों की संख्या में गिरावट के कई कारण हैं जैसे कि डिक्लोफ़िनेक (रासायनिक) दवा है यह दवा पशुओं के शवों को खाते समय गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती है। जिसका दुष्परिणाम इनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। पशु चिकित्सा में इसका प्रयोग मुख्यतः पशुओं में बुखार, सूजन, उत्तेजन की समस्या से निपटने में किया जाता है हालाँकि डिक्लोफ़िनेक दवा का इस्तेमाल साल 2008 में प्रतिबंधित कर दिया गया है वहीं जगह-जगह पर लगे हाई लेवल के बिजली टॉवर भी इनके इस क्षेत्र से पलायन की बड़ी वजह माने जाते है।

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